वो बाहर आकर तूफान कर देगी, ऐसी उम्मीद किसी कश्मीरी को नहीं है। अब वो कर ही क्या सकती है। उसके पास पावर नहीं है। बिजबिहेड़ा में रहनेवाले साबिर के लिए सालभर की कैद से मेहबूबा मुफ्ती के बाहर आने की कोई अहमियत नहीं है। वो उसी गली में रहते हैं जो मेहबूबा मुफ्ती के पुश्तैनी घर के आखिरी छोर पर है।
आमतौर पर जिन गलियों में मुफ्ती मोहम्मद सईद और उनकी इस बेटी की तारीफें बतियाई जाती थीं, वहां इन दिनों कोई सियासत पर बात तक नहीं कर रहा। पिछले अगस्त से अभी तक लोग कश्मीर में लॉकडाउन झेल रहे हैं। बाजार अभी जुम्मा-जुम्मा कुछ दिन पहले ही पूरी तरह खुला है। लोग काम में इतने ज्यादा व्यस्त हैं कि सियासत की बातें करने का भी वक्त नहीं। कारोबारी हो या सरकारी मुलाजिम, सब अपने काम में लगे हैं।

शायद यही वजह थी कि दो दिन पहले जब मेहबूबा मुफ्ती जब अपने पिता की कब्र पर हाजिरी देने पहुंची तो बमुश्किल 10 लोग उनके साथ थे। यहीं नहीं दारा शिकोह पार्क में बनी कब्र पर 40-45 मिनट बिताने के बाद मेहबूबा सीधे श्रीनगर लौट गईं। चंद फलांग की दूरी पर बने अपने पुश्तैनी घर भी नहीं गईं। गुलाम मोइनउद्दीन कहते हैं, मुफ्ती साहब जब भी बिजबिहेड़ा आते थे तो घर के पास वाले आस्ताने पर जरूर जाते थे। लोग उनसे मिलने कतारें लगाते और बड़े-बड़े डेलिगेशन को अपॉइंटमेंट दिए जाते। लेकिन, मेहबूबा ने तो उस ओर नजर भी नहीं की। और लोगों ने भी उनसे मुलाकात में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई।
जाहिद अहमद अनंतनाग के हैं, बीटेक कर चुके हैं। एक फेसबुक पोस्ट दिखाकर कहते हैं, लोगों ने लिखा है मेहबूबा को रख लो, लेकिन 4जी इंटरनेट दे दो। जाहिद कहते हैं कि लोगों को समझ आ गया है कि इन पॉलिटिशियंस ने बस अपने घर भरे हैं। उनसे उम्मीद और उनके बारे में बातें कर अब हम अपना वक्त क्यों जाया करेें। इससे तो बेहतर ये होगा ना कि सरकार इन सभी नेताओं को वापस नजरबंद कर दे और हमें इंटरनेट दे दें।
लेकिन, सभी जाहिद की तरह नहीं सोचते। रऊफ उस वक्त दारा शिकोह पार्क में मौजूद थे, जब मेहबूबा मुफ्ती दो दिन पहले अपने पिता की कब्र पर फूट-फूटकर रो रहीं थीं। रऊफ कहते हैं कि अब जब वो कमजोर पड़ गई है तो जरूर ही उसे अपने अब्बा की याद सता रही होगी। रऊफ को मेहबूबा से सहानुभूति है। कहते हैं- उसने इस बार दिल्ली वालों की बात नहीं मानी। वो टफ लेडी है, 14 महीने लड़ती रही और आगे भी लड़ेगी। रऊफ ऐसा भले कहते हों, लेकिन उनके पास ही खड़े हबीब को ये सच नहीं लगता। वो बोलते हैं- ये सब दिखावा है, उसने तो दिल्ली के साथ पहले से डील कर ली है।

ये कोई इकलौती कहानी नहीं, जो इन दिनों कश्मीर के नेताओं के बारे में कही-सुनी जा रही हो। सुबह कश्मीरी रोटी की दुकानों से लेकर देर शाम आखिरी नमाज तक जिन लोगों की बातों में बार-बार सियासत का जिक्र आता था, अचानक क्या हुआ कि जिक्र सूना हो चला। एजाज कहते हैं कि पिछली अगस्त से जब पाबंदियां लगीं और बाहरी लोग कश्मीर छोड़कर जाने लगे तो लोगों ने जमींदारी और किसानी जैसे काम भी अपने हाथ ले लिए।
पहले जो काम वो पैसे पर लोगों को रखकर करवाते थे, वो इस बार खुद किया। यही वजह थी कि 10 सालों में पहली बार इस साल कश्मीर में फसलें बेहतरीन हुई हैं। फिर चाहे वो सेब हो, धान या फिर अखरोट। लॉकडाउन के चलते लोगों ने काम खुद किया है और उसका असर फसलों में नजर आ रहा है।
जितना नुकसान पिछले एक साल में कारोबार और टूरिज्म ने झेला है, उससे कश्मीर की इकोनॉमी को धक्का लगा है। शकील कहता है- पहले किसी गांव में एनकाउंटर होता था तो भीड़ की भीड़ निकल पड़ती थी। जनाजों में शामिल होती थी। हफ्तेभर बाजार बंद रहते और हड़तालें बुलाई जातीं। लेकिन, अब कहीं से कोई खबर आती है, तो लोग सुनते हैं और कहानी वहीं खत्म हो जाती है। अगले दिन के बाजार पर भी उसका असर नहीं पड़ता।

बिजबिहेड़ा की न्यू कॉलोनी में रहनेवाले नजीर अहमद मुफ्ती मोहम्मद के साथ पार्टी का काम कर चुके हैं। वो यहां तक कहते हैं कि मेहबूबा का रास्ता आसान नहीं होगा। लोगों का भरोसा दोबारा हासिल करना होगा। मगर कश्मीर की हवा बदल भी सकती है, यहां का मौसम बदलते देर नहीं लगती।
शौकत अहमद मैकेनिक हैं। वो याद करते हैं कि पहले लोग सड़क के दोनों तरफ खड़े होकर मुफ्ती खानदान का इंतजार करते थे। शौकत कहते हैं, ये खुद अपने हालात के लिए जिम्मेदार है। मेहबूबा ही भाजपा को कश्मीर में लेकर आई है और स्पेशल स्टेटस खत्म करवाया।
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